स्थितप्रज्ञ की परिभाषा | श्रीमद भगवद गीता | Shrimad Bhagavad Gita | गीता सार | Bhagwat Gita Saar

स्थितप्रज्ञ मनुष्य  की बुद्धि स्थिर रहती हे


स्थितप्रज्ञ मनुष्य  की बुद्धि स्थिर रहती हे
स्थित प्रज्ञ व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को विषयों से समेट कर उन्हें अपने वश में कर लेता है तथा मन को ईश्वर में लीन कर लेता है

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥

विषयोंका निरंतर चिंतन करनेवाले पुरुषकी विषयोंमें आसक्ति हो जाती है, आसक्तिसे उन विषयोंकी कामना उत्पन्न होती है और कामनामें (विघ्न पडनेसे) क्रोध उत्पन्न होता है ।क्रोधसे संमोह (मूढभाव) उत्पन्न होता है, संमोहसे स्मृतिभ्रम होता है (भान भूलना), स्मृतिभ्रम से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्तिका नाश होता है, और बुद्धिनाश होने से सर्वनाश हो जाता है । 

 यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेऽभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

कछुवा सब ओरसे अपने अंगोंको जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह (महात्मा) इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे ह्टा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (एसा समज) । 
ज्ञान से बुध्दि, बुध्दि से मन और मन से इन्द्रियों को वश करनाचाहिए